4:3:1999 की गोष्ठी में

‘‘साकेत लोक कल्याणा एवं सांस्कृतिक संस्थान’’ द्वारा आयोजित आज के इस ‘‘होली मिलन समारोह’’ में आये हुये संस्थान के सम्मानित संरक्षकगण, संस्थान के समस्त पदाधिकारियों, संस्थान के समस्त सदस्यों एवं कार्यक्रम में उपस्थित समस्त सम्मानित अतिथियों का हम ब्रिजेन्द्र दत्त त्रिपाठी संस्थान के अध्यक्ष के रूप में हार्दिक अभिनन्दन एवं स्वागत करते हैं।
सज्जनों संस्थान द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम हमारे उन तमाम प्रयासों एवं चितन के उस विशाल श्रृंखला की एक कड़ी के रूप में है। हमारे कर्मों में सदैव यह प्रतिबिम्बित रहा कि किस प्रकार से हमारे समाज में भेदभाव मिटे, सामाजिक समरसता स्थापित हो।
हम अपने सीमित ज्ञान के आधार पर ‘‘होली पर्व’’ को एक पवित्र त्योहार की संज्ञा देते हैं, यदि हम अपने इस अयोजन से पवित्रता का एक छोटा सा अंश भी आज के समाज में में समावेशित करने में सफल रहे तो, हमारे लिये यह गौरव की बात होगी।
आज के इस कार्यक्रम के अंतर्गत ‘‘युवाओं में बढ़ती हुयी निराशा की भावना-कारण-निवारण’’ विषय पर जो संगोष्ठी आयेजित की गयी, उसके सन्दर्भ में हमारा जो ध्येय है, उसके परिप्रेक्ष्य में हम यह बताना चाहते हैं कि किस प्रकार से हमारे भारतवर्ष की जो युवा शिक्त है वह आवश्यक परिस्थितियों के अभाव में आवश्यक दिशा-निर्देशन के अभाव में, आवश्यक प्रेरणा के अभाव में दिशाहीन होती जा रही है, दिग्भ्रमित होती जा रही है। ‘‘युवा किसी भी राष्ट्र का वतZमान होते हैं।’’ जहां तक हामरा बुिद्धविवेक काम करता है, ‘‘अच्छे वर्त्तमान के आधार पर ही आने वाले सुन्दर भविष्य की परिकल्पना की जा सकती है।’’ आज का हमारा यह वर्त्तमान ही आने वाले भविष्य के लिए, आने वाले कल में गौरवान्वित वर्त्तमान बनने की प्रेरणा देगा।
बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि हमारा यह वर्त्तमान ही भटकाव की स्थिति में है और कभी कभी तो निराशा की पराकाष्ठा उसे उसके मूल कर्तव्यों से भी विचलित करने लगती है। हमारे पूर्व के वक्ताओं ने विचार व्यक्त किया कि ‘‘युवा और निराशा’’ बात कुछ ठीक नही लगती, तर्कसंगत नहीं लगती, अपने आप में यह कोई समस्या नहीं है, यह कोई प्रश्न नहीं है, लेकिन हम अपने श्रद्धेयों से यह पूछना चाहते हैं कि हो सकता है कि आप की बात कुछ हद तक ठीक हो, सत्य हो, परन्तु यदि यह सत्य सामने आया है, यदि यह प्रश्न अपना उत्तर मांग रहा है, यह समस्या उठ खड़ी हुयी है, तब इसका निराकरण तो करना ही पड़ेगा।
युवाओं के मन में, वर्त्तमान के मन में, ये जो निराशा के बीज अंकुरित होते हैं, उसके मूल में, यदि हम अध्ययन करें तो पायेंगे कि इसकी बहुत कुछ जिम्मेदारी आज के इस व्यवसथा की है, तदुपरान्त समाज की है और सबसे ज्यादा जिम्मेदारी आज के श्रद्धेय अभिभावकों की है। ‘‘निराशा की भावना’’ के उत्पन्न होने में हमें जो मूल कारण दृष्टिगोचित होता है वह है ‘‘मानसिक ह्रास। हमने अपने छोटे से सामाजिक अध्ययन में पाया है कि जब किसी में कुछ सार्थक या निरर्थक करने की इच्छा जागृत होती है, तब उसे उसके सन्दर्भ में सम्बन्धित परिस्थितियां केवल और केवल उन बिन्दुआं को उभारेंगी, जो सम्बन्धित प्रयास का केवल एक ही पक्ष प्रतिबिम्बित करेगी। सहयोग करने की बात तो दूर, कभी-कभी तो उनके प्रयास को निरर्थक बताया जायेगा, और इससे भी बढ़कर यह कह दिया जायेगा कि ‘‘क्या बिलावजह पुदीने के पेड़ पर चढ़ रहे हो।’’
अरे मेरे मित्र, पुदीने का पेड़ है छोटा है, चढ़ रहा हूं, अगर गिरा भी बहुत कुछ बच जायेगा, किन्तु यदि बिना पुदीने के पेड़ पर चढ़े, सीधे बड़े पेड़ पर चढ़ गया तो ‘‘कुछ नहीं बचेगा’’, सब कुछ चला जायेगा, आज के युवाओं में निराशा के जितने भी कारण है, उनके निराकरण के सन्दर्भ में हम तो केवल इतना स्पष्ट करना चाहेंगे, कि जो लोग वक्त का इंतजार करते हैं, सोचते हैं कि अमुक समय में, अमुक परिस्थितियां अनुकूल हो जायेंगी, तो सम्बन्धित अनुकूल प्रयास को साकार किया जायेगा, तो हम उन्हें इतना बता दें कि यह उनका ‘‘मूढ़ चिंतन’’ है। परिस्थितियां अनुकूल होने की सम्भावना तो कम है, यह अवश्य संभावित है कि अनुकूल परिस्थितियों के इंतजार में ‘‘आप’’ अपने स्वयं के प्रयास के सन्दर्भ में प्रतिकूल सिद्ध हो जायें। कहने का मतलब है, ‘‘चलते रहिये’’ अन्यथा मन्जिल ही चली जायेगी, और तब वही निराशा उतपन्न करने वाले कारण कहेंगे, ‘‘तब पछताये होत क्या, जब चिडिया चुग गई खेत’’।
मेरे मित्रों जब कोई आपसे यह कहे कि, ‘‘न तो आप आसमान में है और न ही जमीन पर’’ तब आपको निराशा नहीं होना चाहिये, चूंकि उसके वक्तव्य में एक स्वीकारोक्ति तो सिद्ध है कि ‘‘आप जमीन पर नहीं है।’’ और यदि जमीन पर नहीं है, आसमान पर नहीं हैं तो बड़ी साफ सी बात है कि आप हवा में है, जमीन से उठ चुके हैं, और ऊंचाई की ओर बढ़ रहे हैं और यदि प्रयासरत रहे तो हमारा दृष्टिकोंण है कि आप आसमान रूपी मंजिल तक जरूर पहुंचेगे।
मेरे मित्रों किसी भी कार्य को करने में तमाम प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न होती है, किन्तु सच्चा पुरुषार्थी वह है, जो सभी परिस्थितियों में अपने मंजिल की ओर निरन्तर बढ़ता रहता है, गतिमान रहता है, और यह अकाट्य तथ्य है कि सच्चा पुरुषार्थी, सच्चा योद्धा कभी भी थक नहीं सकता, परास्त नहीं माना जा सकता, असफल नहीं कहा जा सकता।
कहने का तात्पर्य है, प्रयत्नशील रहिये, व्यस्त रहिये, कर्मरत रहिये निश्चित रूप से निराशा समाप्त हो जायेगी। अपनी धूमिल यादों के सहारे हम आपको बतायेंगे कि, ‘‘हमाारी माँ’’ गुनगुनाया करती थीं, ‘‘नर हो न निराश करो मन को, कुछ काम करो कुछ काम करो।’’ इन पंक्तियों ने हमें बहुतों बार सहारा दिया है। आप भी इन पंक्तियों को गुनगुनाइयें, हमें विश्वास है कि आपको इनसे, नई उर्जा प्राप्त होगी, और आप अपने-अपने जीवन की उन श्रेष्ठतम् ऊँचाइयों को प्राप्त करने में सफल होंगे जो आपने अपने स्वयं के लिये निर्धारित कर रखें हैं। इन्हीं आशांओं और विश्वास के साथ अन्त में प्रधानमंत्री ‘‘अटल जी’’ द्वारा रचित यह प्रेरणात्मक पंक्तियाँ-

हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा,
काल के कपाल पर, लिखता मिटाता हूँ,
गीत नया गाता हूं, गीत नया गाता हूँ।
गीत नया गाता हूँ।
धन्यवाद्।

बी. डी. त्रिपाठी