नेहरू वर्तमान औद्योगिक नीति का अनुमोदन नहीं करते

सन् १९४७ में भारतवर्ष के स्वतन्त्र होने के साथ ही शुरू हो गयी इसके औद्योगिक विकास की यात्रा। चूंकि भारत सदैव से ही प्राकृतिक सम्पदा से परिपूर्ण रहा है, इसलिये इसके तीव्रतम विकास के अनेकों द्वार अपार संभावनाओं के साथ खुले हुये थे।

१९४८ में नेहरू जी के नेतृत्व में जिस औद्योगिक नीति का अनुमोदन किया गया वह बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय पर आधारित स्वतंत्र भारत की पहली औद्योगिक नीति थी, जिसमें कृषि एवं लघु और कुटीर उद्योगों को विशेष प्रोत्साहन दिया गया था। वस्तुत: वही औद्योगिक नीति भारतीय अर्थव्यवस्था को कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था बनाने की पहली कड़ी थी।

नेहरू जी यूरोपियन विचारधारा से ओत-प्रोत थे। परन्तु उनके जवीन पर कम्युनिज्म और समाजवाद का भी स्पष्ट प्रभाव पड़ा था। वे एक ओर तो भारतीय अर्थव्यवस्था को आर्थिक रूप से यूरोपियन अर्थव्यवस्था के समकक्ष ही समृद्ध बनाने की दिशा में प्रयत्नशील थे तो दूसरी तरफ भारतवर्ष को शैक्षकि और सामाजिक रूप से इसकी अपनी सांस्कृतिक विरासत के साथ ही प्रगतिशील बनने की मानसिकता के पक्षधर थे।

नेहरू जी ने अपने प्रधानमंत्रीत्व काल में भारतीय अर्थव्यवस्था को विकास और सुधार के जिस मार्ग पर ले जाने की शुरूआत की थी वह ‘‘वासुधैव कुटुम्बकम्ब’’ की वास्तविक संरचना के आधार पर आधारित थी, जिसका उद्देश्य भारतवर्ष के निचले तबके को ऊपर उठाकर देश को वास्तविक प्रगति की ओर अगzसर करना था। नेहरू जी भारतीय जनमानस की प्रगति को भारतवर्ष की प्रगति के साथ जोड़कर देखते थे। उनका विश्वास था देश के लोगों के साथ देश को आगे बढ़ाने में, और विश्व के आर्थिक मंच पर अपनी एक अलग और स्पष्ट छाप छोड़ने में वस्तुत: इसलिये ही उन्होंने भारतवर्ष को कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था के साथ ही विकास की दौड़ में अपना श्रेष्ठ स्थान बनाने की दिशा में सर्वोत्तम शुरूआत की थी।

वर्तमान औद्योगिक नीति के परिप्रेक्ष्य में यह सवाल किया जा सकता है कि यदि उस समय इन कदमों के सहारे विकास की दौड़ में सम्मिलित हुआ जाता तो आज के इस वैश्वीकरण में हमारा कुछ और ही स्थान होता परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि तब की और आज की आर्थिक परिस्थितियों में जमीन-आसमान का अन्तर है। भारतवर्ष की आजादी के ठीक बाद भारतीय अर्थव्यवस्था की जो पृष्ठभूमि थी उसमें भारतवर्ष को प्रगति के मार्ग पर ले जाने के लिये जिस औद्योगिक नीति के सहारे जोरदार मुहिम की शुरूआत की गयी थी, यदि हम उसका ठीक-ठीक विश्लेषण करें तो पायेंगे कि हमारे पास उस वक्त की परिस्थितियों में इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था कि हम कृषि और उससे सम्बन्धित अन्य रोजगार साधनों को प्रोत्साहित करके आगे बढ़ने की कोशिश करते हुये अपने को विश्व के आर्थिक पटल पर nirdharit कर सकें। नेहरूजी की औद्योगिक नीतियों में देश के तिवातम तीव्रतम विकास पर ही नहीं जोर दिया जाता था वरन् उनमें देश की घरेलू समस्याओं को हल करने के तमाम प्रयासों को परोक्ष रूप से महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता था। नेहरू जी की औद्योगिक नीतियां देश की अर्थव्यवस्था के दोनों पहलुओं में सामंजस्य स्थापित करते हुये बनायी गयी थीं उसमें इस बात का भरसक प्रयत्न किया गया था कि वे एक ओर तो देश को विकास की दौड़ में आगे बढ़ाते हुये विश्व के मानचित्र पर एक सुदृढ़ अर्थव्यवस्था वाले देश का स्थान सुनिश्चित करें और दूसरी ओर उन औद्योगिक नीतियों से हमारे देश की अनेकों घरेलू समस्याओं का भी निदान हो सके और यहां के लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठ सके। वास्तव में वे औद्योगिक नीतियां देश को दीर्घकालिक रूप से लाभ पहुंचाने की दिशा में, एक श्रेष्ठ प्रयत्न के रूप में संबोधित की जा सकती है।

नेहरू जी एक श्रेष्ठ राष्ट्र चिन्तक होने के कारण और यहां के आम लोगों से भावनात्मक रूप से जुड़े होने के कारण स्वावलम्बन को प्राथमिकता देते थे और वे सही मायने में भारतवर्ष को प्रत्येक क्षेत्र में स्वावलम्बी बनाने की दिशा में प्रयत्नशील रहते थे। वे भारतवर्ष में जो बदलाव लाना चाहते थे वह किसी राष्ट्र की नकल अथवा संवेदनहीनता पर आधारित न होकर एक स्वस्थ्य लोकहित पर आधारित था। नेहरू जी की औद्योगिक नीतियां देश में उपस्थित संसाधनों के साथ ही देश को स्वावलम्बी बनाने के श्रृंखला की पहली कड़ी थी। नेहरू जी की औद्योगिक नीतियां विस्तृत क्षेत्र से सम्बन्धित होते हुयेभी आर्थिक पक्ष में ही नही वरन् सामाजिक पक्ष में भी देश और देश के निवासियों की प्रगति और कल्याण पर आधारित थी। हमारी वर्त्तमान औद्योगिक नीति की एक सबसे बड़ी कमी इसका मानव समाज के केवल आर्थिक पहलू को ही महत्व देना है। हमारा वर्त्तमान ही हमारे भविष्य की रूप रेखा निर्धरित करता हैं। इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि हम अपनी आज की औद्योगिक नीति में आर्थिक पहलू को महत्वपूर्ण स्थान देते हुये, सामाजिक मूल्यों की जो अनदेखी कर रहे हैं वह आने वाले कल में विस्फोटक साबित हो सकती है।

किसी भी देश में एक स्वस्थ्य समाज की स्थापना के लिये यह आवश्यक है कि वहां के सभी वर्गों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुये एक ऐसी जनकल्याण पर आधारित आर्थिक नीतियों को लागू किया जाये जो देश का औद्योगिक विकास करते हुये यहां पर वास्तविक सम्पन्नता का वाहक बने, परन्तु हमारी आज की औद्योगिक नीतियों में ‘‘हमारी वास्तविक सम्पन्नता’’ का तत्व बहुत कुछ निकृष्टतम रूप में समावेषित है। नेहरू जी के नेतृत्व में बनायी गयी औद्योगिक नीतियों के अंतर्गत हुयी देश की औद्योगिक प्रगति और नेहरू जी के बाद में बनायी गयी औद्योगिक नीतियों के अंतर्गत देश की औद्योगिक प्रगति का यदि हम विश्लेषण करें तो पायेगे कि औसत रूप से नेहरू कालीन विकास गति अपेक्षति रूप से ज्यादा तेज थी, जबकि हमारे पास संसाधनों का सर्वथा अभाव था।

वर्त्तमान समय में किया गया प्रयत्न भविष्य में हमारे सम्मुख परिणामस्वरूप में उपस्थित होता है। आज की जो परिस्थितियां है उसमें हम आगे बढ़ रहे हैं और हमारा देश और समाज भी अपने श्रेष्ठ सामाजिक मूल्यों और आदशों को छोड़कर समय के तेज प्रवाह में अपनी सांस्कृतिक विरासत को धूल में मिलाते हुये आर्थिक रूप से सम्पन्न बन जाने की होड़ में आगे बढ़ रहा है परन्तु क्या हमारा देश और हमारे देश का वो निचला तबका भी वास्तविक रूप से आगे बढ़ रहा है। जिसकी प्रगति नेहरू के औद्योगिक नीतियों का प्रमुख ध्येय थी। हमें ठहर कर चिन्तन करना चाहिये कि क्या हम वास्तविक रूप से सम्पन्न हो रहे हैं।

प्रयत्न मानव के और परिणाम समय के वश में होता है। हम जो बीत गया उसमें बदलाव नहीं कर सकते, परन्तु उसमें हो गयी त्रुटियों से सबक लेकर वर्त्तमान में सुधार करते हुये सुखद भविष्य की कल्पना कर सकते हैं। नेहरू कालीन औद्योगिक नीतियों के गहन मूल्यांकन में देश की श्रेष्ठ प्रगति का जो प्रतिबिम्ब उभर कर सामने आता है, उनके आधार पर और वर्तमान औद्योगिक नीतियों के अंतर्गत आने वाले समय में देश की औद्योगिक प्रगति तथा विकास की अस्पष्ट और धूमिल रूपरेखा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नेहरू वर्तमान औद्योगिक नीति का अनुमोदन नहीं करते।

बी. डी. त्रिपाठी

२७-०१-१९९६ से ०४-०२-१९९६ के बीच