गाँधी और गांधी का भारतवर्ष

हमारे और हम सबके ‘‘गाँधी’’ और इन्हीं परमप्रयि गांधी का विशाल, अजेय और बलिष्ठ भारत। एक ऐसा भारत जिसकी सुखद कल्पना की थी, भारतवर्ष के इस महान सपूत ने। वह सुख सम्रद्धी से भरपूर भारत, जो था हमारे गौरवमयी इतिहास में वर्णित, उत्कृष्ट परम्पराओं त्याग और बलिदान से महिमामण्डित जीवन्त भारत का सुखद स्वरूप।
२ अक्टूबर, १८६९ में जन्म लेने वाले इस महापुरूष ने जिस भारत की कल्पना की होगी, वह शायत सतयुग के रामराज्य की जीवन्त तस्वीर के रूप में उनके विचारों के सम्मुख उपस्थित हुआ होगा। कितना कठिन और दु:साध्य होगा उस तत्कालीन समय में आने वाले भारत की सुस्पष्ट कल्पना करना।
‘‘महात्मा गांधी-भारतवर्ष की आंधी’’ वो आंधी जिसने परतन्त्रता की बेड़ियों को काटकर भारतवर्ष को स्वतन्त्र कर दिया, और एक मार्ग दिखलाया विश्वविजय प्रापत करने का और उस विश्व विजय को प्राप्त करने के लिये त्याग, प्रेम, सत्य एवं संयम रूप अस्त्रों को हमारे हाथों में दिया। हम आगे बढे और बढ़ते-बढ़ते हर्शोंमोदन में चूर होकर भुलाते गये अपने आदर्श, अपनी मान्यताएं और वे गौरवशाली परम्परायें, और आज उन सब खामियों का भयावह दृश्य हमारे सम्मुख अपनी पूरी विकरालता के साथ उपस्थित है। वह ‘‘विजय-पताका’’ जो हमारे हाथों में थी वह तो उसी गांधी के आशीर्वाद से अब भी शायद हमारे हाथों में सुरक्षति है, किन्तु कहां गुम हो गयी हमारी वो अपराजेय शक्तियां जिनके बल पर हमने समस्त आसुरी शक्तियों का नाश किया था, आज हम क्यों इतने दीन-हीन और दुर्बल हो चुके हैं, कि हमारे अन्दर एक भटकाव आ गया हैं
हमें ठहर कर विचार करना होगा, और फिर उन्हीं गांधी जी को याद करके स्वयं ही अपना सम्बल ढूंढ़ना पड़ेगा। क्या गांधी के बाद से आज तक को जो भारत, हमने पौरूष और सामर्थ्य से बनाया है, ये वर्तमान भारत का स्वरूप गांधी के भारत से मिलता है, यदि नहीं, तो आखिर ऐसी कौन सी भूले हो गयी जिनका खामियाजा आज सारे भारतवर्ष को भुगतना पड़ रहा है।
ये मानव जीवन तथा मानव प्रकृति एवं राष्ट्र और कालचक्र की गति का सीधा और सरल नियम है कि यदि मंजिल पर पहुंचने का सीधा सरल रास्ता अख्तियार न करके कुछ शार्टकट रास्ते अपनाये जायेंगे तो परिणाम स्वरूप हमारी प्रगति एवं मंजिल की धूमिल और अस्पष्ट सी छाप ही हमें प्राप्त होगी।
निरन्तर गतिमान समय के साथ ही हमारी परम्पराएँ, मान्यताएं और आदर्श बदलते स्वरूप में हमारे सम्मुख उपस्थित होते रहते हैं, जो कि समयानुसार अव्यवहारिक भी साबित हाते रहते हें, किन्तु उनके मूल में जो संदेश निहित है, वह ही हमें मार्गदर्शक के रूप में दिशाज्ञान करता रहता है।
क्या आज इस बात की आवश्यकता नहीं महसूस होती कि, हम उन सन्देशों में अपनी वर्तमान प्रगति और श्रेष्ठता के अमूल्य सूत्रों को पुन: आपस में जोड़कर एक ‘‘बहुजन सुखाय-बहुजन हिताय’’ पर आधारित सुस्पष्ट जीवन दर्शन तैयार करें ओर उसको पूरी निष्ठा और लगन के साथ अपने आचरण और व्यवहार में समावेशित करें। गीता में कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘‘परिवर्तन तो संसार का शाश्वत नियम है।’’ सृष्टि के प्रत्येक आचरण और व्यवहार को उत्थान और पतन के सर्वकालिक नियमों से होकर गुजरना पड़ता है।
आज हमारे और उन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के भारतवर्ष को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, ऐसा नहीं है कि ऐसा पहली बार हो रहा है। इतिहास इस बात का साक्षी है, कि अलगाववाद साम्प्रदायवाद, भ्रष्टाचार एवं चरित्रहनन जैसी निकृष्ट बुराइयों का सामना प्रत्येक काल में प्रत्येक व्यवसथा को करना पड़ रहा है। ये अलग बात है कि इनकी मात्रा कभी अधिक तो कभी कम होती रहती है। एकाध सभ्यताओं में तो इन बुराइयों ने नि:कृष्ट स्तर की पराकाष्ठा ही पार कर दी थी। ये एक दूसरी बात है कि विखंण्डन के इस दौर में हम सभी लोग कभी-कभी इस कदर भयभीत हो जाते हैं कि एक सच्चे युग और उत्कृष्ट जीवन मूल्यों की स्थापना एक बेईमानी और स्वप्न प्रतीत होने लगते हैं, परन्तु जैसा पहले से होता आया है और आगे भी होता रहेगा, जिसे हम कहते हैं ‘‘दौर’। एक ‘‘दौर’’ की समाप्ति के बाद शुरू हो जाता है दूसरा ‘‘दौर’’। तात्पर्य यह है कि यह सब निरन्तर गतिमान समय में होने वाले अनको-अनेक परिवर्तनों का ही एक रूप है जो कि हमें सुख और दुख की क्रमवार अनुभूति कराते रहते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने परम आदरणीय महापुरूष महात्मा गांधी के बताये हुये संमार्गों पर चलने का सफल प्रयत्न करें और अपने व्यक्तगित स्तर से राष्ट्र को आगे बढ़ाने के लिए ईमानदारी से एकजुट होकर प्रयास करें।
देश, काल और समाज का प्रभाव मानवीय जीवन पर अनिवार्य रूप से पड़ता है और जिसके फलस्वरूप कभी-कभी अनजाने में ही हम अपने कर्त्तव्य पथ से विमुख होने लगते हैं, और कुछ पल के लिये डिग जाते हैं, परन्तु हमें सम्हलना होगा और फिर बार-बार सम्हलना होगा, चूंकि अविश्वास और अराजकता के इस दौर में संयम और सदबुद्धी का सही इस्तेमाल ही हमें आगे बढ़ने के लिए स्फूर्ति प्रदान करेगा।
यदि हम विचार करें तो पायेंगे कि ‘‘युग परिवर्तनकारी शक्तियां कोई भी व्यक्ति जन्म से नहीं पाता, वो स्वयं से ही इसका निर्माण करता है, परिस्थितियों से ही उसमें उर्जा प्राप्त होती है। गांधी जी का यह श्रेष्ठ विचार था कि हमें बदलाव का आरम्भ स्वयं के केंद्र बिन्दु से ही शुरू करना होगा। जिस श्रेष्ठता को हम प्राप्त करना चाहते हैं उसके लिए प्रथम प्रयास हमारा ही होना चाहिये। वैसे भी ‘‘जदि तोर डाक सुने केउ न आशे, तबे एकला चलो रे’’ ¼यदि तुम्हारे आह्वाहन पर कोई नहीं आता, तो अकेले चलो½ गांधी जी का पुराना और सबसे प्रयि गीत था। आज आवश्यकता है उसी भावना को अपनाने की, जिसका सार गांधी के इस गीत में समावेषित है।
आज की वर्त्तमान परिस्थिति में कहा जा सकता है कि समय और व्यवस्था दोनों ही सम्पूर्णता की हद तक खराब है और ऐसे दौर में परिवर्तन की किसी भी शुरूआत की बात करना महज एक कोरी बकवास है, परन्तु क्या इतिहास इस सत्य का साक्षी नहीं है कि ऐसी ही दौर में परिवर्तनों का शुभारम्भ हुआ है।
आपको महसूस होता है या नहीं, परन्तु पता नहीं किस दैवीय भावना अथवा सुलझी-अनसुलझी घटनाओं से परिवर्तनों की एक शानदार शुरूआत के दर्शन हमें अपने गांधी के भारतवर्ष में दिखायी देने लगे हैं।
वैसे भी जब कोई ‘‘चीज’’ चाहे वह कछ भी हो जब अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाती है, तब वहीं से उसके समापन की शुरूआज हो जाती है, और इस प्रकार से यदि आज ‘‘बुराइयां’’ अपने चरमोत्कर्ष पर है तब हमें प्रसन्न होना चाहिये कि अब ये अपनी समाप्ति की ओर उन्मुख है। और हम अपने दोनों हाथों से श्रेष्ठ विचारों के साथ, कर्त्तव्य, मार्ग पर डटे रहते हुये प्रयत्नशील रहना चाहिये, और आने वाले उस सुखद समय के स्वागत करने के लिय प्रतीक्षारत रहना चाहिये और महात्मा गांधी के भारतवर्ष की संकल्पना को मूर्ति रूप देने के लिये तन-मन-धन से चिन्तन और प्रयास करना चाहिये, तभी हम निर्माण कर सकेंगे, अपने राष्ट्रपिता की समस्त आकांक्षाओं को पूरा करने वाले एक श्रेष्ठ भारतवर्ष की।

बी. डी. त्रिपाठी