कल की बातें-आज का सत्य

आज की तारीख में जो समस्या सबसे ज्यादा प्रबल होती दिखायी पड़ रही है वह ‘‘जातिगत आरक्षण नीति’’ है।

संविधान निर्माण सभा के अध्यक्ष, बसपा वालों के कथित भगवान और भारतीय नागरिकों के लिये सम्मानीय पुरूष डा० भीमराव अम्बेडकर की दुहाई देकर जो लोग इस जातिवादी आरक्षण व्यवस्था की नीति को उचित ठहराते हुये अपनी क्षणिक स्वार्थ सीद्धि करना चाहते हैं, वास्तविकता यह है कि उनको तत्कालीन राष्ट्रीय-सामाजिक परिस्थितियों और सम्पूर्ण जनमानस में प्रसिद्ध विद्वान डा० अम्बेडकर के बारे में कोई ज्ञान प्राप्त नहीं है। और यदि है तो उसे अधकचरा ज्ञान ही कहा जायेगा।

ऐसा लगता है कि सम्पूर्ण आरक्षण समर्थक शक्तियां, चाहे वे जिस रूप में हमारे समक्ष विद्यमान है, उन्हें इस दूषित एवं अंधकारमय और स्वार्थी राजनैतिक गतिविधियों की परछायी के कारण संविधान सभा के सभी गणमान्य सदस्यों में डा० अम्बेडकर के अतिरिक्त और किसी भी विद्वान सदस्य पुरूषों का नाम याद नहीं है और वे अपने अधकचरे ज्ञान के सहारे इस भोले-भाले भारतवासियों को बरगलाकर अपनी स्वार्थ सिद्धि कर रहे हैं और इस बात की दुहाई देते हैं कि आरक्षण की यह व्यवस्था जायज है यदि सम्पूर्ण परिस्थितियों की जांच-पड़ताल की जाये और निडरतापूवZक एक तटस्थ निर्णय दिया जाये तो वह यह होगा कि तत्कालीन परिस्थितियों में डा० अम्बेडकर से एक बहुत बड़ी भूल हो गयी थी, जिसका खामियाजा आज चहुंओर से इस मुद्दे को लेकर भारतवर्ष को भुगतना पड़ रहा है। यह गलती मूल रूप से यह थी कि डाक्टर साहब ‘‘पिछड़ा’’ शब्द की सही व्याख्या नहीं कर पाये थे और उस समय उन्होंने तत्कालीन भारतवर्ष के भविष्य की रूपरेखा का स्पष्ट चित्रण अपने मन-मस्तिष्क में नहीं किया था, जिसका सम्पूर्ण लाभ आज क्षुद मानसिकता वाले लोलुप और स्वार्थी राजनीतिज्ञ उठा रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि उस समय डा० अम्बेडकर को इस भूल का ध्यान नहीं कराया गया था, कराया गया था परन्तु किन्हीं अज्ञात कारणों से उन्होंने उन सभी के राय मशविरे को अनसुना कर दिया था और जिसके कारण आज जातीय उन्माद अपनी चरमसीमा पर है।

सविधान सभा में इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर जो बहस हुयी थी उसमें २७ सदस्यों ने भाग लिया था और उन सभी ने किसी न किसी रूप में यह आशंका व्यक्त करके कि यदि पिछड़े शब्द की सही परिभाषा न दी गयी तो राष्ट्र के समक्ष भविष्य में गम्भीर समस्यायें आ सकती है, डा० अम्बेडकर के ऊपर इस बात का दबाव डाला था कि वे इसकी व्याख्या करें और उसके जवाब में डा० अम्बेडकर ने जो स्पष्टीकरण दिया था उससे यह बात स्पष्ट होती है कि संविधान सभा ‘‘अनुसूचित जनजाति’’ को ही ‘‘पिछड़ा वर्ग’’ मानने की मानसिकता में थी और उन्हीं को आगे बढ़ाने के लिय आगामी कुछ वर्षों तक आरक्षण देने की पक्षधर थी।

इस स्पष्टीकरण के बाद भी जैसा कि इसके पहले संविधान सभा के सदस्यों ने कुछ सवाल उठाये थे उसी तरीके के कुछ बुनियादी सवाल उनके द्वारा पुन: उठाये गये और डा० अम्बेडकर के स्पष्टीकरण की ओर इंगित करते हुये कहा कि यहां पर बात पूरी तरीके से स्पष्ट नहीं हो रही है और अध्यक्ष महोदय को चाहिये कि वे इसकी और सटीक व्याख्या करें।

इन सवालों को उठाने में सुप्रसिद्ध समाजवादी नेता दामोदस स्वरूप सेठ ने कहा था कि ‘‘पिछड़ा वर्ग या पिछड़ा समुदाय कौन है?’’ इसकी कसौटी का निर्धारण कर पाना बहुत कठिन होगा। यदि सम्बन्धित अनुच्छेद को संविधान सभा ने स्वीकार किया तो इससे केवल जातिवाद व पक्षपात बढ़ेगा तथ योग्यता एवं प्रतिभा का हास होगा और इसके परिणामस्वरूप एक श्रेष्ठ कोटि के सरकार की स्थापना नहीं की जा सकेगी और न ही सरकार के पास जैसी श्रेष्ठ कोटि की कार्य क्षमता होनी चाहिये वह कार्यक्षमता ही आ सकेगी।

इनसे भी ज्यादा विरोध करते हुये लोकनाथ मिश्रजी ने ेकहा था कि ‘‘मैं कोई लंबा भाषण नहीं दूंगा और केवल यह कहना चाहूँगा कि आरक्षण के सम्बन्ध में जो अनुच्छेद बनाया गया है वह हटा दिया जाये क्योंकि ‘‘पिछड़े वर्ग’’ को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने का अर्थ होगा अक्षमता, अयोग्यता और पिछड़े बने रहने की भावना को शिक्त प्रदान करना।’’ उन्होंने स्पष्ट कहा कि सरकारी नौकरियाँ योग्यता के आधार पर ही देनी चाहिये क्योंकि एक लोकतांत्रकि और पंथनिरपेक्ष शासन में ऐसी व्यवस्था कभी नहीं होनी चाहिये जो देश के नागरिकों में भेद करे।

इसी बारे में बिहार के के०टी० शाह ने कहा था कि यदि समाज को अगड़ो-पिछड़ो में बांटा जायेगा तो भारत के नागरिक बड़े शर्मनाक ढ़ंग से उसी प्रकार बंट जायेंगे जैसे कि श्वेत व अश्वेत बंट गये।

उपरोक्त नेताओं के समर्थन में पंडित वैद्यनाथ कुंजरू तत्कालीन प्रमुख मुस्लिम नेता अजीज अहमद खान, अरी बहादुर गुरंग, आर०एम० नलवाड़े, डा० धर्मप्रकाश, प्रसिद्ध हरिजन नेता चन्द्रिका राम, डा० टी०टी० कृष्णमुरारी आदि आगे आये और आरक्षण व्यवस्था के विरोध में अकाट्य तर्क दिये और इस बात से सबको आगाह किया कि यदि पिछड़े शब्द की सही परिभाषा न दी गयी तो भविष्य में लोग अपने-अपने ढ़ंग से इसको परिभाषित करेंगे और राष्ट्र के समक्ष भयंकर समस्याएं आयेंगी क्योंकि इस देश में ऐसा कोई समुदाय नहीं है, जिसमें आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक तथा राजनैतिक रूप से पिछड़े व्यिक्त न हों। पिछड़े लोगों की संख्या हिन्दू-मुसलमान-सिक्ख-ईसाई तथा अन्य सभी अल्पसंख्यक समुदायों में है। इसके अतिरिक्त यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि पिछड़े वर्ग का निर्धारण करने के लिये शिक्षा, आर्थिक सम्पन्नता अथवा जन्म में से किस बात को आधार बनाया जायेगा जिससे कि व्यवस्थायें सुचारू रूप से, nirbadh गति से आगे बढ़ती रहे और एक आदर्श भारतीय समाज की स्थापना हो सके।

इन सभी बातों का उत्तर जब डा० अम्बेडकर ने दिया तो उनका उत्तर आधा अधूरा ही रहा और उन्होंने कोई ठोस स्पष्टीकरण नहीं दिया और उस उत्तर का सार यह है कि ‘‘संविधान के अनुसार प्रत्येक व्यिक्त को समता का अधिकार प्राप्त है। क्षेत्रीय परिस्थितियों के अनुसार जो लोग प्रशासन में अपनी भागीदारी नहीं पा सकें हैं उन्हें भी कुछ हिस्सेदारी मिले। परन्तु उन पिछड़ों में जिनमें सभी अनुसूचित जातियां तथा जनजातियां शामिल है ये सीमा पचास प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिये और उन्होंने ये भी आश्वासन दिया कि आरक्षण की यह व्यवस्था केवल दस वर्ष के लिये ही होगी।’’

कहा गया है कि जब दुर्भाग्य को आना होता है तो वह आता ही है और इसी का नाम है इश्वरीय विधान। आज यह स्वत: ही दृष्टिगोचर है कि किस प्रकार एक विशेष वर्ग जो अपने को डा० अम्बेडकर का परम अनुयायी और शिष्य तथा समर्थक मानता है वे ही डा० अम्बेडकर के सभी आश्वासनों, विचारधाराओं तथा बनायी गयी स्वस्थ्य व्यवस्थाओं और उनके आदर्शों को तोड़-मरोड़ कर और अपने मनमाफिक ढ़ंग से प्रस्तुत करके उसकी धज्जियां उड़ा रहे हैं। अफसोस होता है कि उनकी पदलोलुपता और स्वार्थपरता को देखकर और अधिक ग्लानि होती है।

लानत है ऐसे राजनैतिक दलों और उनके नेताओं तथा अनुयायियों पर जो जिस महापुरूष को अपना आदर्श और अपना भगवान मानते हैं उनके ही सिद्धान्तों तथा विचारधाराओं से बेपरवाह होकर भारतीय समाज में एक भ्रष्ट जातिवादी व्यवस्था को बढ़ावा देकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।

जातीय उन्माद आज अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुका है। भारतीय आदर्श समाज खण्ड-खण्ड होने जा रहा है। ऐसे सममय मे प्रत्येक व्यिक्त का चाहे वह जिस बिरादरी और सम्प्रदाय से सम्बन्धित क्यों न हो यह कर्त्तव्य बनता है कि वह अपने व्यक्तगित स्वार्थ को भुलाकर और क्षुद मानसिकता को त्यागकर इस समस्या पर गहन चिन्तन-मनन करें और सत्य को पहचाने तथा अपना सही निर्णय जो राष्ट्र के लिये हितकारी हो उसे व्यक्त करें तथा प्रत्येक स्तर से कुछ न कुछ ऐसा उपाय करें जिससे कि हमारे भारतवर्ष का विराट हिन्दू समाज अपना अस्तित्व खोने, बिखरने, टूटने से बच जाये और एक स्वस्थ प्रक्रिया के अंतर्गत निर्बाध जगत से प्रगति के मार्ग पर चलकर श्रेष्ठतम् सफलता को अर्जित करे।

 

बी. डी. त्रिपाठी

२६-०१-१९९५